मूल अधिकार नैसर्गिक एवं अप्रतिदेय हैं जो कि राज्य कृत्य के विरुद्ध गारंटी हैं। इनका वर्णन भारतीय संविधान के भाग – 3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक किया गया है। इन्हें संविधान में सम्मलित करने का समर्थन नेहरू रिपोर्ट (1928 ) द्वारा किया गया था। ये संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिए गए हैं। भारतीय संविधान में मूल अधिकारों का प्रारूप जवाहर लाल नेहरू ने तैयार किया था। संविधान के भाग-3 को भारत का अधिकारपत्र ( Magnacarta ) भी कहा जाता है जिसे मूल अधिकारों का जन्मदाता भी कहा जाता है। भारतीय संविधान का अभिन्न अंग होने के कारण इनमें संशोधन भी किया जा सकता है एवं राष्ट्रीय आपात ( अनुच्छेद – 352 ) के दौरान मौलिक अधिकारों ( जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता को छोड़कर ) को स्थगित भी किया जा सकता है।
मूल संविधान में
नागरिको के लिए 7 मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गयी थी। परन्तु 44 वें संविधान संशोधन 1978 के द्वारा संपत्ति के अधिकार ( अनुच्छेद-31 व 19 क ) को मूल अधिकारों से हटाकर अनुच्छेद – 300 (a) में रख दिया गया और अब ये सिर्फ क़ानूनी अधिकार है। मूल अधिकारों में किसी भी प्रकार की संदिग्धता की स्थिति में इसका निपटारा सर्वोच्च न्यायलय द्वारा किया जायेगा। संविधान के निर्माण से पूर्व ही मूल अधिकारों की मांग होना प्रारम्भ हो गयी थी, जो विभिन्न अवसरों पर विभिन्न राष्ट्रवादी नेताओं संस्थाओं व बिल के माध्यम से उठाई गई थी।
मूल अधिकारों की माँग –
- कांग्रेस का पूना अधिवेशन 1895 ( सुरेन्द्रनाथ बनर्जी )
- होमरूल आंदोलन 1915 ( एनीबेसेंट )
- 1925 के Commonwealth of India Bill में इसकी केवल चर्चा की गई
- कांग्रेस का मद्रास अधिवेशन 1927 ( मुख़्तार अहमद अंसारी )
- द्वितीय गोलमेज सम्मलेन में गाँधी जी द्वारा
- नोट – 1935 के अधिनियम में मूल अधिकारों की बात तक नहीं की गयी।
मूल अधिकार – (अनुच्छेद १२ से 35 तक)
- समता का अधिकार (14 – 18)
- स्वतंत्रता का अधिकार (19 – 22)
- शोषण के विरुद्ध अधिकार (23 – 24)
- धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (25 -28)
- संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (29 -30)
- संवैधानिक उपचारों का अधिकार (३२)
मूल अधिकारों से संबंधित विभिन्न वाद-
शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ 1951 –
( प्रथम संविधान संशोधन को चुनौती ) इस वाद में उच्चतम न्यायलय ने निर्णय दिया कि संसद अनुच्छेद-368 के तहत मूल अधिकारों में भी परिवर्तन कर सकता है।
सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य वाद 1965 –
इसमें उच्चतम न्यायलय ने शंकरी प्रसाद वाद के निर्णय का ही अनुमोदन किया।
गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य वाद 1967 –
इसमें पुनः मूल अधिकारों में परिवर्तन को वाद बनाया गया। इस निर्णय में उपरोक्त दोनों वादों को बदल दिया गया और निर्णय दिया कि संसद मूल अधिकारों में परिवर्तन नहीं कर सकती।
केशवानंद बनाम केरल राज्य वाद 1973 –
इस वाद के निर्णय में “मूल ढांचे का सिद्धांत” दिया गया और स्पष्ट किया गया कि संसद मूल अधिकारों में परिवर्तन कर सकती है। लेकिन संशोधन उसी सीमा तक मान्य होगा जिस सीमा तक मूल ढांचे का सिद्धांत परिवर्तित न होता हो।
मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ 1980 –
( 42 वें संविधान संशोधन को चुनौती ) इसमें केशवानंद वाद के ही निर्णय को दोहराया गया और संसदीय शक्ति की सीमा का निर्धारण किया गया और कहा गया कि मूल ढांचे के आलावा संशोधन स्वीकार्य है। इसके अतिरिक्त यह भी निर्धारित किया गया कि संविधान के आधारमूल लक्षणों की रक्षा का अधिकार न्यायालय को है। और इसी आधार पर न्यायालय किसी भी संशोधन का पुनरावलोकन भी कर सकता है। इसके तहत 42 वें संशोधन की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया और इस प्रकार इस निर्णय के पश्चात संसद और न्यायपालिका के मध्य टकरावों की स्थिति समाप्त हो गई।
अनुच्छेदवार मूल अधिकार :-
अनुच्छेद – 12 राज्य की परिभाषा
केंद्र सरकार, राज्य सरकार व स्थानीय व अन्य प्राधिकारी ( राज्य क्षेत्र में या नियंत्रण में )
अनुच्छेद – 13 मूल अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियाँ
- इसके अनुसार संसद ऐसा कोई भी कानून नहीं बना सकती जिससे मूल अधिकारों का उल्लंघन होता हो या उनका अल्पीकरण होता हो।
- संविधान में न्यायिक पुनरावलोकन प्रत्यक्ष रूप से कहीं भी उल्लखित नहीं है, अप्रत्यक्ष रूप से इसका स्त्रोत अनुच्छेद – 13 ही है।
- संविधान प्रारम्भ होने से ठीक पूर्व भारत के राज्य क्षेत्र में लागू सभी विधियां उस मात्रा तक शून्य होंगी जिस तक वे इस भाग-3 से असंगत हैं या उल्लंघन करती हैं।
अनुच्छेद – 14 विधि के समक्ष समता
इसके तहत राज्य सभी व्यक्तियों के लिए समान कानून बनाएगा तथा उन पर समानता से लागू करेगा किसी भी व्यक्ति को विशेषाधिकार नहीं दिया जायेगा प्रत्येक व्यक्ति समान कानूनों द्वारा ही शासित होगा।
अपवाद – अनुच्छेद – 361 के तहत राष्ट्रपति व राज्यपाल के विशेषाधिकार, अनुच्छेद – 105 और 194 के तहत दिए गए विशेषाधिकार।
अनुच्छेद -15 धर्म, जाति, लिंग, मूलवंश ( नस्ल ), जन्मस्थान के आधार पर विभेद निषेध
इसे आधुनिक समाज की स्थापना का अनुच्छेद भी कहा जाता है क्योंकि इसके तहत किसी भी नागरिक के साथ इन आधारों पर सार्वजनिक स्थलों ( जैसे – दुकान, होटलों, मनोरंजनों के सार्वजनिक स्थलों, जो प्रदेश या राज्य निधि द्वारा पोषित हों या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं, तालाबों, घाटों और सड़कों ) के सन्दर्भ में भेदभाव नहीं किया जा सकता।
अनुच्छेद – 16 लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता
राज्य के अधीन निकलने वाली नौकरियों व पदों पर नियुक्ति व नियोजन हेतु सभी नागरिकों को समान रूप से अवसर प्रदान किये जायेंगे।
*नौकरियों में आरक्षण इसी अनुच्छेद के आधार पर दिया जाता है।
अनुच्छेद – 17 अस्पृश्यता का अंत
संविधान में अस्पृश्यता को परिभाषित नहीं किया गया है। किन्तु मैसूर उच्च न्यायलय ने इस शब्द के सन्दर्भ में कहा है कि इस शब्द का अर्थ शाब्दिक या व्याकरणीय दृष्टि से दूर अत्यधिक ऐतिहासिक और बर्बर है। इसका अर्थ है किसी वर्ग विशेष के लोगों की उनके रहन सहन खान-पान इत्यादि के आधार पर अयोग्य सिद्ध करना।
अनुच्छेद -18 उपाधियों का अंत
इसके तहत राज्य ने सेना व शिक्षा के अतिरिक्त अन्य सभी उपाधियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। अर्थात राज्य सेना व शिक्षा सम्बन्धी सम्मान के अतिरिक्त कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा।
नोट – इसी अनुच्छेद के तहत देश का कोई भी नागरिक राष्ट्रपति की अनुमति के बिना किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि ग्रहण नहीं कर सकता।
अनुच्छेद – 19 वाक् स्वातंत्र्य आदि विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण
*इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार का अनुच्छेद भी कहा जाता है।
मूल संविधान में वाक् स्वातंत्र्य सम्बन्धी 7 अधिकार थे। 44 वें संशोधन 1978 के बाद अब 6 रह गए हैं।
19 (a) – बोलने की स्वतंत्रता, प्रेस की स्वतंत्रता, व्यावसायिक विज्ञापन, प्रदर्शन व विरोध का अधिकार
19 (b) – शांतिपूर्ण ( बिना हथियार के ) एकत्रित होने व सभा करने की स्वतंत्रता
19 (c) – संघ बनाने की स्वतंत्रता ( राजनीतिक दल इसी आधार पर बनते हैं। )
19 (d) – भारतीय राज्य क्षेत्र में कहीं भी बाधारहित घूमने की स्वतंत्रता
19 (e) – भारत के राज्य क्षेत्र में कहीं भी बसने की स्वतंत्रता ( अपवाद – जम्मू कश्मीर )
19 (g) – आजीविका चलाने हेतु विधिसम्मत किसी भी प्रकार का व्यवसाय करने की स्वतंत्रता
***19 (f) – संपत्ति का अधिकार – इसे 44 वें संविधान संशोधन 1978 द्वारा हटा दिया गया।
अनुच्छेद – 20 अपराधों के लिए दोष सिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण
इसके तहत 3 प्रकार की स्वतंत्रता दी गयी है –
- किसी भी व्यक्ति को एक अपराध के लिए एक बार ही सजा दी जा सकती है।
- किसी भी व्यक्ति को उसी कानून के तहत सजा दी जा सकती है जो अपराध करते समय प्रचलन में हो, न इसके बाद वाले के तहत और न ही उससे पहले वाले के अनुसार।
- किसी भी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध न्यायलय में गवाही देने के लिए वाध्य नहीं किया जा सकता।
अनुच्छेद – 21 प्राण एंव दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण
किसी किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य किसी आधार पर उसकी जीवन और वैयक्तिक स्वतंत्रता से वंचित नहीं रखा जा सकता
- मेनका गाँधी बनाम भारत संघ वाद 1978 इस सम्बन्ध में निर्णायक रेखा है।
अनुच्छेद 21 (क) – शिक्षा का अधिकार ( 86 वें संशोधन 2002 द्वारा जोड़ा गया)
राज्य 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चो के लिए निशुल्क व अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करेगा।
अनुच्छेद – 22 गिरफ़्तारी और निवारक निरोध से संरक्षण
प्रत्येक व्यक्ति को उसकी गिरफ़्तारी का शीघ्रातिशीघ्र कारण बताया जाना जरुरी है। 24 घंटों के अंदर ( यात्रा समय के अतिरिक्त ) मजिस्ट्रेट के सम्मुख प्रस्तुत करना। इसी के तहत वकील से परामर्श की सुविधा है।
*निवारक निरोध – इसके तहत किसी संदिग्ध व्यक्ति को अपराध करने से पूर्व ही गिरफ्तार कर लिया जाता है। इस गिरफ़्तारी का उद्देश्य अमुक व्यक्ति को सजा देना नहीं बल्कि उसे अपराध करने से रोकना होता है। यह राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था बनाये रखने या देश की सुरक्षा सम्बन्धी कारणों से किया जा सकता है।
अनुच्छेद – 23 मानव के दुर्व्यापार और बलात श्रम का प्रतिषेध
इसके तहत किसी व्यक्ति की खरीद-बेच, बेगारी या किसी भी प्रकार के बलात श्रम को प्रतिबंधित कर दिया गया है।
- परन्तु जरुरत पड़ने पर राष्ट्र की सेवा करने के लिए बाध्य किया जा सकता है।
अनुच्छेद – 24 बालकों के नियोजन का प्रतिषेध
14 वर्ष या इससे काम आयु के बालको को कारखानों या किसी अन्य जोखिम भरे कार्यो में नियुक्त नहीं किया जा सकता है।
*2006 में बच्चो हेतु घरेलू व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में नियोजन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है और नियोजित करने वालो को दण्ड का प्रावधान है।
अनुच्छेद – 25 अंतःकरण, धर्म को मानने, आचरण करने व प्रचार करने की स्वतंत्रता
इसमें स्वतंत्रता दी गयी है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म को मान सकता है। उसके अनुसार आचरण कर सकता है। और उसका प्रचार व प्रसार कर सकता है।
अनुच्छेद – 26 धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता
यह अनुच्छेद धर्म की समूहिक स्वतंत्रता से सम्बंधित है। यह अनुच्छेद व्यक्ति को अपने धर्म के लिए संस्था निर्माण व पोषण का अधिकार प्रदान करता है।
अनुच्छेद – 27 विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए कर न अदा करना
राज्य किसी भी व्यक्ति को ऐसा किसी भी प्रकार का कर या चंदा देने को बाध्य नहीं कर सकता। जिसका प्रयोग किसी विशेष धर्म की अभिवृद्धि व पोषण हेतु किया जा रहा हो।
अनुच्छेद – 28 शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षण या धार्मिक उपासनाओं में शामिल होने की स्वतंत्रता
- राज्य द्वारा पूर्ण रूप से पोषित संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है। और न ही ऐसे शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को किसी धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेने में या धर्मोपदेश को सुनने के लिए बाध्य ही कर सकते हैं।
- राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त संस्थाओ में अभिभावकों की सहमति से शिक्षा दी जा सकती है।
- राज्य द्वारा प्रशासित किन्तु किसी धर्मस्त या न्यास द्वारा स्थापित संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है।
अनुच्छेद – 29 अल्पसंख्यक वर्गों के हितो का संरक्षण
सभी नागरिकों को भाषा, लिपि व संस्कृति बनाये रखने का अधिकार होगा और राज्य वित्त से पोषित संस्थाओ में जाति, लिंग इत्यादि के आधार पर भेदभाव नहीं होगा।
अनुच्छेद – 30 अल्पसंख्यक वर्गों को शिक्षण संस्थाओ की स्थापना व व्यवस्था करने का अधिकार
कोई भी अल्पसंख्यक अपने पसंद की शिक्षण संस्थान चला सकता है। और राज्य अनुदान देने में उसके साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगा।
अनुच्छेद – 32 संवैधानिक उपचारों का अधिकार
*अम्बेडकर ने इसे ही संविधान की आत्मा कहा है।
इसके अंतर्गत 5 प्रकार की रिट जारी की जाती हैं-
(1)- बंदी प्रत्यक्षीकरण ( Habeas Corpus )
(2)- परमादेश ( Mandamus )
(3)- प्रतिषेध ( Prohibition )
(4)- उत्प्रेषण ( Certiorari )
(5)- अधिकार प्रेक्षा ( Quo-Warranto )
उपर्युक्त दी गयी रिटों के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए नीचे दिए लिंक पर जाईये –
भारतीय संविधान में उल्लिखित पाँच न्यायिक रिट
अनुच्छेद – 33
सिविल सेवको, सैन्य बलों, पुलिस व गुप्तचर संगठनों के मामले में संसद कानून बनाकर मूल अधिकारों को सीमित कर सकती है।
अनुच्छेद – 34
संसद किसी भी क्षेत्र में सेना विधि (Martial Law) लागू कर सकती है। ऐसी स्थिति में मूल अधिकारों पर प्रतिबन्ध लग जाता है।
अनुच्छेद – 35
अनुच्छेद – 33 व 34 के सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार संसद को प्राप्त है न कि राज्य विधानमंडलों को।