जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड ( Jallianwala Bagh Massacre )

जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड (Jallianwala Bagh Massacre) –

जलियाँवाला हत्याकांड भारतीय इतिहास की बहुत दी दुखद घटनाओं में से एक है जिसमे हजारो निर्दोष लोगो को बिना वजह मौत के घाट उतार दिया गया। ब्रिटिश शासन में 13 अप्रेल 1919 को हुयी इस घटना ने पूरे देश को हिला कर रख दिया और देश में चारो और शोक की एक लहर उमड़ गयी।

जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड की पृष्ठभूमि –

मार्च 1919 में रौलेट एक्ट (द् अनार्किकन एण्ड रेवॉल्यूशनरी क्राइम एक्ट -1919) पारित हुआ।  इसे सामान्य भाषा में “बिना वकील, बिना अपील और बिना दलील वाला कानून कहा जाता था। इसके तहत सरकार जब चाहे जिसे चाहे बिना मुकदमा चलाये जेल में बंद कर सकती थी। इसी के तहत अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर द्वारा 9 अप्रैल 1919 को पंजाब के दो क्रांतिकारी डॉo सैफुद्दीन किचलू और सत्यपाल को गिरफ्तार कर लिया गया। ये दोनों नेता कांग्रेस के 1919 में होने वाले अमृतसर अधिवेशन की स्वागत समिति से सम्बद्ध थे। इस गिरफ़्तारी का आदेश पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर माइकल ओ डायर ने दिया था।

इस गिरफ़्तारी के विरोध में एक शांतिपूर्ण जुलुस निकाला जा रहा था जिस पर प्रशासन ने गोली चलवा दी फलस्वरूप दो लोगो की मृत्यु हो गयी और भीड़ ने उग्र रूप ले लिया और सरकारी दफ्तरो और इमारतों को आग के हवले करना शुरू कर दिया और पाँच अंग्रेजों को भी जान से मार दिया। अब 10 अप्रैल 1919 को शहर का प्रशासन जनरल डायर को सौंप दिया गया।

हत्याकांड

13 अप्रैल 1919 को बैशाखी वाले दिन शाम 4 बजे अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ (जो कि किसी जल्ली नामक व्यक्ति की संपत्ति था) में एक शांतिपूर्ण सभा हो रही थी। जो कि संभवतः हंसराज नामक व्यक्ति द्वारा बुलाई गई थी। सभा में महात्मा गाँधी, सैफुद्दीन किचलू और सत्यपाल की गिरफ़्तारी और रौलेट एक्ट के विरोध में भाषणबाजी चल रही थी। तभी अचानक जनरल डायर अपनी सेना के साथ वहां आ गया और बिना किसी पूर्व चेतावनी के निहत्थी जनता पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसाने का आदेश दे दिया। उस बाग़ का एक ही मुख्य द्वार था जिस पर हथियारबंध सैनिक डटे हुए थे। जनता में भगदड़ मच गयी और उस बाग़ में एक कुआं भी था न जाने कितने लोग गोलियों से अपनी जान बचाने को उस कुँए में कूद गए और सब मारे गए।

जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड का प्रभाव –

इस घटना का सम्पूर्ण भारत में विरोध हुआ। इसी विरोध में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने “सर” व “नाइट” की उपाधि त्याग दी और शंकर नायर ने वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् की सदस्यता त्याग दी।

इस हत्याकाण्ड की जांच हेतु ब्रिटिश सरकार ने “हंटर आयोग” का गठन किया। मार्च 1920 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमे सरकार को दोषी नहीं ठहराया गया था।

सरकारी रिपोर्ट के अनुसार इस हत्याकाण्ड में 379 लोग मारे गए और 1200 लोग घायल हुए परन्तु वास्तविक आंकड़ा इससे कहीं अधिक था।

जनरल डायर को उसके इस कृत्य के लिए नौकरी से हटना पड़ा। परन्तु इस दुष्कृत्य के बाद भी ब्रिटिश सरकार ने जनरल डायर को विभिन्न पुरस्कारों और अलंकरणों से विभूषित किया।

मार्च 1940 में पंजाब के एक क्रांतिकारी ऊधमसिंह ने सर माइकल ओ डायर (हत्याकाण्ड के समय पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर) की लंदन में हत्या कर दी। इन्हे गिरफ्तार कर मृत्युदण्ड दिया गया।

इस हत्याकांड के समय भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड  चेम्सफोर्ड थे।

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