अलंकार की परिभाषा, भेद और उदाहरण – अलंकार का पूर्णतः ठीक-ठीक लक्षण व प्रवृत्ति बताना कठिन है। फिर भी संकीर्ण व व्यापक अर्थों में इसकी परिभाषा निश्चित करने की चेष्टा की गयी है। वामन आचार्य के अनुसार, “जो किसी वस्तु को अलंकृत करे, वह अलंकार कहलाता है।” जिस प्रकार आभूषण स्वर्ण से बनते हैं उसी प्रकार अलंकार भी सुवर्ण (सुन्दर वर्ण) से बनते हैं।
अलंकार के भेद :-
अध्ययन के आधार पर अलंकार के कुल तीन भेद होते हैं – शब्दालंकार, अर्थालंकार और उभयालंकार।
शब्दालंकार
शब्दों के आधार पर जिन अलंकारों की प्रवृत्ति को सुनिश्चित किया जाता है वे शब्दालंकार कहलाते हैं। शब्दालंकारों के भी भेद होते हैं। कुछ शब्दालंकार वर्णगत, कुछ शब्दगत तो कुछ वाक्यगत होते हैं। शब्दालंकार के प्रमुख भेद – अनुप्रास, श्लेष, यमक, वक्रोक्ति अलंकार हैं।
अनुप्रास अलंकार –
जहाँ पर वर्णों की आवृत्ति हो वहां अनुप्रास अलंकार आता है। इसमें एक ही वर्ण की बार बार आवृत्ति होती है। अर्थात जब कोई वर्ण एक से अधिक बार आता है तो वहाँ पर अनुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण – बँदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।
श्लेष अलंकार –
जहाँ पर एक शब्द के एक से अधिक अर्थ निकलते हों वहां पर श्लेषालंकार आता है।
उदाहरण – रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून। पानी गये न ऊबरे, मोती मानुस चून।
यमक अलंकार –
जहाँ पर एक शब्द की आवृत्ति एक से अधिक बार हुयी हो परंतु सभी के अर्थ भिन्न हों वहां पर यमक अलंकार आता है।
उदाहरण – कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय। बा खाये बौरात जग, या पाए बौराय।
अर्थालंकार
अर्थ के आधार पर जहाँ अलंकारों की प्रवृत्ति सुनिश्चित की जाती है वहाँ अर्थालंकार आता है। अर्थ को बेहद खूबसूरत व चमत्कारी बनाने वाले अलंकार को अर्थालंकार कहते हैं।
उपमा अलंकार –
दो वस्तुओं में समानता की व्याख्या करने को उपमा कहते हैं। उपमा का अर्थ समता, बराबरी या तुलना होता है। इस अलंकार में चार कारक प्रमुख होते हैं। (1) उपमेय – जिसकी उपमा दी जाए, अर्थात जिसका वर्णन किया जा रहा हो। (2) उपमान – जिससे उपमा या तुलना की जा रही हो। (3) समानतावाचक पद – ज्यों, सम, सा, तुल्य, सी इत्यादि। (4) समानधर्म – उपमेय व उपमान के समान धर्म को व्यक्त करने वाला शब्द।
उदाहरण – नवल सुन्दर श्याम-शरीर की, सजल नीरद-सी कल कान्ति थी।
रूपक अलंकार –
जहाँ पर उपमेय पर उपमान का भेदरहित आरोप हो वहां पर रूपक अलंकार आता है। इसमें तीन कारकों का होना महत्वपूर्ण है – (1) उपमेय को उपमान का रूप देना। (2) इसमें वाचक पद का लोप होता है। (3) इसमें उपमेय का भी साथ-साथ वर्णन किया जाता है।
उदाहरण – (1) बीती विभावरी जाग री। अम्बर-पनघट में भिगो रही तारा-घट ऊषा-नागरी।
(2) चरन कमल बंदौ हरि राई।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, आंधर कों सब कछु दरसाई॥
बहिरो सुनै, मूक पुनि बोलै, रंक चले सिर छत्र धराई।
सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंदौं तेहि पाई॥
उत्प्रेक्षा अलंकार –
उत्प्रेक्षा का अर्थ है किसी वस्तु को संभावित रूप में देखना। जहाँ पर उपमेय (प्रस्तुत) में उपमान (अप्रस्तुत) की संभावना की जाए वहां उत्प्रेक्षा अलंकार आता है। इसमें संभावना संदेह से कुछ ऊपर और निश्चय से कुछ नीचे होती है। इसमें न तो पूरा संदेह होता है और न ही पूरा निश्चय। इसके कवि की कल्पना साधारण कोटि की न होकर उच्च कोटि की होती है। उपमेय में उपमान को प्रबल रूप में कल्पना की आँखों से देखने की प्रक्रिया को ही उत्प्रेक्षा अलंकार कहते हैं।
उदाहरण – फूले कास सकल महि छाई। जनु बरसा रितु प्रकट बुढ़ाई।
अतिशयोक्ति अलंकार –
अतिशयोक्ति का अर्थ है उक्ति में अतिशयता का समावेश होना। जहाँ किसी का वर्णन इतना बढ़ा चढ़ा कर किया जाए की सीमा का उल्लंघन हो जाए वहां अतिशयोक्ति अलंकार आता है। जहाँ उपमेय को उपमान पूरी तरह निगल ले वहाँ पर यह अलंकार आता है। जहाँ उपमेय और उपमान का समान कथन न होकर सिर्फ उपमाना का वर्णन होता है वहां यह अलंकार आता है।
उदाहरण – हनूमान की पूंछ में लगन न पाई आग। लंका सिगरी जर गयी गए निशाचर भाग।
भूप सहस दस एकहिं बारा। लगे उठावन टरत न टारा।
उभयालंकार
जो अलंकार शब्द और अर्थ दोनों पर आश्रित रहकर उनके काव्य सौंदर्य को बढ़ाता है उसे उभयालंकार कहते हैं।