सोलह संस्कार एक परिचय –
संस्कार का शाब्दिक अर्थ होता है शुद्ध या पवित्र करना अर्थात हिन्दू धर्म में संस्कारों का विधान दूषित मानव शरीर व मस्तिष्क को पवित्र व परिष्कृत करने के लिए किया गया है ताकि वह वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक व सामुदायिक विकास के लिए उपयुक्त हो सके और अपने कर्तव्यों की पूर्ति के साथ अपने जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति कर सके। संस्कारो में भी वर्णभेद की नीति अपनाई गयी थी, संस्कार विशेषतः द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के लिए बनाए गए थे। शूद्रों के भी कुछ संस्कार होते थे लेकिन उनकी क्रियाएं मंत्रहीन होती थीं। इसके साथ ही संस्कारों में लिंगभेद की भी नीति अपनाई गई थी, जिसके तहत स्त्रियों के भी संस्कार होते थे लेकिन वे जातकर्म व चूड़ाकर्म तक मंत्रहीन होते थे अपवादस्वरूप 15 वां संस्कार-विवाह में मंत्रो का प्रयोग होता था।
16 संस्कारों से सम्बन्धित महत्वपूर्ण तथ्य –
- संस्कारों का उल्लेख गृहसूत्रों में मिलता है।
- गृहसूत्रों में 16 संस्कारों का उल्लेख मिलता है।
- सूत्रकार गौतम द्वारा संस्कारों की संख्या 16 बताई गयी है।
- मनुस्मृति में संस्कारों की संख्या मात्र 13 बताई गयी है।
- सर्वाधिक संस्कारों का उल्लेख गौतम धर्मसूत्र में मिलता है।
16 संस्कार
गर्भाधान –
यह बालक के जन्म से पूर्व किया जाने वाला प्रथम संस्कार है पितृ ऋण से उऋण होने के लिए संतानोत्पत्ति हेतु की जाने वाली यह प्रथम प्रिक्रिया है।
पुंसवन –
पुत्र प्राप्ति हेतु मंत्रोच्चारण द्वारा किया जाने वाला संस्कार।
सीमंतोन्नयन –
गर्भवती स्त्री को भूत-प्रेत आदि बाधाओं से बचाने और गर्भ की रक्षा हेतु इस संस्कार को तीसरे से आठवें माह के मध्य किया जाता था और इस संस्कार में गर्भवती स्त्री की विशेष ख़ुशी हेतु सजाया संवारा जाता था।
जातकर्म –
बालक के जन्म के तत्काल बाद किया जाने वाला संस्कार है इसके अनुसार बालक का पिता बालक को घृत व शहद चटाता था।
नामकरण –
इस संस्कार में बच्चे का नाम रखा जाता था।मनुस्मृति के अनुसार यह संस्कार बालक के जन्म के 10 वें दिन किया जाता था, वहीं याज्ञवाल्क्य के अनुसार यह संस्कार 11 वें दिन किया जाना सही माना गया है।
निष्क्रमण –
यह जन्म के चौथे सप्ताह में किया जाता है, इसमें बालक को पहली बार घर से बाहर ले जाया जाता है और सूर्य के दर्शन कराये जाते हैं।
अन्नप्राशन –
यह बालक के जन्म के 6 माह बाद होता था, जब बालक को पहली बार अन्न खिलाया जाता था।
चूड़ाकरण/चौलकर्म –
यह संस्कार बच्चे के जन्म के प्रथम वर्ष अथवा तीसरे वर्ष की समाप्ति से पूर्व किया जाता था। जिसमें बालक के सर का मुंडन किया जाता था, इसे हम मुण्डन संस्कार के नाम से जानते हैं। इसके पीछे की भावना बच्चे को स्वच्छता का ज्ञान कराना था।
कर्णभेद –
यह एक अनिवार्य संस्कार था, जिसे बालक के जन्म के 10वें दिन से लेकर 5वें वर्ष तक किया जा सकता था। इसमें बालक के कान छेद कर उसमें कुण्डल पहनाये जाते थे। वर्ण के आधार पर कर्णछेदन की सुई की धातु में भेद किया गया था, क्षत्रिय का कर्णछेदन सोने की सुई से, ब्राह्मण व वैश्य का चाँदी की सुई से और शूद्र का लोहे की सुई से
विद्यारम्भ –
इस संस्कार में बच्चे को घर में ही अक्षरबोध कराया जाता था
उपनयन –
यह सबसे महत्वपूर्ण संस्कार था इसमें बालक शिक्षा हेतु गुरु को समर्पित कर दिया जाता था गुरु बालक को गायत्री मन्त्र का उपदेश देता था शुद्रो को इस संस्कार से वंचित रखा गया था इस संस्कार के बाद बालक माँ के साथ भोजन करना बंद कर देता था, इस संस्कार से बालक का नया जन्म होता था इस संस्कार की उम्र भी वर्णो के आधार पर अलग अलग थी ब्राह्मणो के लिए 8 वर्ष क्षत्रियों के लिए 11 वर्ष व वैश्यों हेतु 12 वर्ष।
वेदारम्भ –
यह पूर्ण रूप से शैक्षणिक संस्कार था जिसका प्रारम्भ गुरु की देखरेख में वेद के अध्ययन से होता है इस संस्कार का प्रथम उल्लेख “वेदव्यास स्मृति” में मिलता है।
केशान्त / गोदान –
जब बालक 16 वर्ष का होता है तो पहली बार उसकी दाढ़ी-मूछ काटी जाती है और वह अपने गुरु को गुरु दक्षिणा में गाय दान देता है इसीलिए इसे गोदान संस्कार भी कहा जाता है।
समावर्तन –
यह संस्कार गुरु के आश्रम से अध्ययन समाप्त कर घर लौटने पर होता है यह संस्कार बालक की शिक्षा के पूर्ण होने का सूचक है इसमें छात्र को स्नान कराया जाता ताकि वो स्नातक बन सके और इसी संस्कार के बाद व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर सकता है।
विवाह –
मनुस्मृति में मुख्यतः 8 प्रकार के विवाह का उल्लेख मिलता है जिनमे 4 श्रेष्ठ व 4 निंदनीय माने गये हैं।
अंत्येष्टि –
मृत्यु के पश्चात किया जाने वाला संस्कार।