चार आर्य सत्य (चत्वारि आर्यसत्यानि) क्या हैं – महात्मा बुद्ध निरर्थक दार्शनिक वादविवादों से दूर रहे। उन्होंने निर्वाण-प्राप्ति के बाद भी मानव-कल्याण के लिए स्वयं को सांसारिक समस्याओं में लगाया। वास्तव में महात्मा बुद्ध कोई दार्शनिक नहीं थे, बल्कि एक अत्यन्त व्यवहारिक समाज सुधारक थे। ज्ञान प्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध ने सर्वप्रथम अपना उपदेश उन पाँच ब्राह्मण सन्यासियों को सारनाथ (ऋषिपत्तन) में दिया था, जिन्होंने उनके कठोर साधना से विरत हो जाने पर उनका साथ छोड़ दिया था। उनका यह पहला उपदेश धर्मचक्रप्रवर्त्तन कहलाता है, जो चार आर्यसत्य भी कहलाता है। महात्मा बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं के सारांश को ‘चार आर्य सत्य’ के रूप में व्यक्त किया।
चार आर्य सत्य बुद्ध की शिक्षा हैं।
महात्मा बुद्ध की समस्त शिक्षाएं प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से चार आर्य-सत्यों से प्रभावित है। महात्मा बुद्ध कहते है कि “जो चार आर्य सत्य है, उनकी सही जानकारी न होने से मै संसार में एक जन्म से दूसरे में घूमता रहा हूँ। अब मै उन्हें जान गया हूँ, जन्म लेने का क्रम रूक गया है। दुःख का मूल नष्ट हो गया है, अब फिर जन्म नहीं होगा।” बौद्ध दर्शन चार आर्य-सत्यों में ही निहित है। ये चार आर्य-सत्य, जोकि बौद्ध धर्म के सार है, इस प्रकार है –
बुद्ध के चार आर्य सत्य
(1) संसार दुःखों से परिपूर्ण है (There is suffering)
(2) दुःखों का कारण भी है (There is a cause of suffering)
(3) दुःखों का अन्त सम्भव है (There is a cessation of suffering)
(4) दुःखों के अन्त का एक मार्ग है (There is a way leading to the cessation of suffering)
बुद्ध ने चार आर्य-सत्यों की महत्ता को स्वयं ‘मज्झिम निकाय’ में स्पष्ट किया है – “इसी से (चार आर्य सत्यों से) अनासक्ति, वासनाओं का नाश, दुःखों का अंत, मानसिक शान्ति, ज्ञान, प्रज्ञा तथा निर्वाण सम्भव हो सकते हैं।”
1. पहला आर्य सत्य – दुःख
महात्मा बुद्ध ने अपने प्रथम आर्य सत्य (The First Noble Truth) में दुःख की उपस्थिति का वर्णन किया है। प्रथम आर्य-सत्य के अनुसार संसार दुःखमय है। उनके अनुसार इस सम्पूर्ण सृष्टि में सब कुछ दुःखमय है (सर्व-दुःख दुःखम्)।
सुख का न मिलना दुःख है, सुख को प्राप्त करने के प्रयास में दुःख है, प्राप्त होने के बाद उसको बरकरार रखने में दुःख है और चूँकि प्रत्येक चीज अनित्य व नश्वर है अतः अंत में प्राप्त सुख का भी कभी-न-कभी अंत होगा और उसके बाद तो दुःख है ही। जन्म से लेकर मृत्यु तक सारा जीवन ही दुःख है, मृत्यु के बाद भी दुःख का अंत नहीं होता क्योंकि उसके बाद पुनर्जन्म है और फिर मृत्यु है।
दुःखों की व्यापकता के विषय में उल्लेखनीय है – “जन्म में दुःख है, नाश में दुःख है, रोग दुःखमय है, मृत्यु दुःखमय है। अप्रिय से संयोग दुःखमय है, प्रिय से वियोग दुःखमय है। संक्षेप में रोग से उत्पन्न पञ्चस्कन्ध दुःखमय हैं।”
बौद्ध दर्शन में शरीर (Body), अनुभूति (Feeling), प्रत्यक्ष (Perception), इच्छा (Will) और विचार (Reason) को पंचस्कन्ध माना गया है।
इस प्रकार यह जन्म-मृत्यु-चक्र (भव-चक्र) निरन्तर चलता रहता है और प्रत्येक व्यक्ति इसमें फँसकर दुःख भोगता रहता है। धम्मपद में गौतम बुद्ध कहते है कि जब सम्पूर्ण संसार आग से झुलस रहा है तब आनंद मनाने का अवसर कहाँ है ?
संयुक्त निकाय में महात्मा बुद्ध कहते है “संसार में दुखियों ने जितने आँसू बहाये है, उनका जल महासागर में जितना जल है, उससे भी ज्यादा है।”
गौतम बुद्ध द्वारा संसार को दुःखमय मानने का समर्थन भारत के अधिकांश दार्शनिकों ने किया है लेकिन कई विद्वान इस बात की आलोचना करते है। दुःखों पर अत्यधिक जोर दिए जाने के कारण वे बौद्ध दर्शन को निराशावादी दर्शन का दर्जा देते हैं।
लेकिन बौद्ध दर्शन पर निराशावाद का आरोप उचित नहीं है क्योंकि यह सही है कि महात्मा बुद्ध ने दुःखों की बात की है लेकिन वो यहीं पर रुके नही बल्कि उन्होंने दुःखों को दूर करने के उपाय भी बताये हैं।
चतुर्थ आर्य-सत्य में उन्होंने दुःखों को समाप्त करने के मार्ग (अष्टांगिक मार्ग या अष्टांग मार्ग) का भी वर्णन किया है। इस प्रकार हम कह सकते है कि बौद्ध दर्शन का आरम्भ निराशावाद से होता है लेकिन वो आशावाद के रूप में समाप्त होता है।
2. दूसरा आर्य सत्य – दुःख-समुदाय
अपने द्वितीय आर्य-सत्य में गौतम बुद्ध ने दुःख की उत्पत्ति के कारण पर विचार प्रकट किया है। समुदय का अर्थ है ‘उदय’। इस प्रकार दुःख-समुदय का अर्थ है ‘दुःख उदय होता है’। प्रत्येक वस्तु के उदय का कोई न कोई कारण अवश्य होता है। दुःख का भी कारण है।
तथागत बुद्ध ने दुःख के कारण का विश्लेषण दूसरे आर्य-सत्य में एक सिद्धांत के सहारे किया है। इस सिद्धान्त को संस्कृत में प्रतीत्यसमुत्पाद (The doctrine of Dependent Origination) कहा जाता है। पाली भाषा में इस सिद्धान्त को पटिच्यसमुत्पाद कहते हैं। जब हम प्रतीत्यसमुत्पाद का विश्लेषण करते हैं तब पाते हैं कि यह दो शब्दों के मेल से बना है। प्रतीत्य का अर्थ है ‘किसी वस्तु के उपस्थित होने पर (depending)’ और समुत्पाद का अर्थ है ‘किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति (origination)’। इस प्रकार प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ हुआ ‘एक वस्तु के उपस्थित होने पर किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति’ अर्थात ‘एक के आगमन से दूसरे की उत्पत्ति‘। इस प्रकार प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत, कार्यकारण सिद्धांत पर आधारित है।
भूत, वर्तमान और भविष्य जीवन की दृष्टि से प्रतीत्यसमुत्पाद के जो भेद किये गए हैं। वे निम्न प्रकार हैं। इस सिद्धांत को ‘द्वादश-निदान’ भी कहते है। इस सिद्धांत में दुःख का कारण पता लगाने हेतु बारह कड़ियों (निदान) की विवेचना की गयी है, जिसमें अविद्या को समस्त दुःखों (जरामरण) का मूल कारण माना गया है।
ये द्वादश निदान इस प्रकार हैं –
- अविद्या (Ignorance),
- संस्कार (Impressions) (कर्म),
- विज्ञान (Consciousness) (चेतना),
- नाम-रूप (Mind Body Organism),
- षडायतन (Six Sense Organs) (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ व मन और उनके विषय),
- स्पर्श (Sense Contact) (इंद्रियों और विषयों का सम्पर्क),
- वेदना (Sense-experience) (इन्द्रियानुभव),
- तृष्णा (Craving) (इच्छा),
- उपादान (Mental Clinging) (अस्तित्व का मोह),
- भव (The will to be born) (अस्तित्व),
- जाति (Rebirth) (पुनर्जन्म),
- जरामरण (Suffering) (दुःख)
1 व 2 का सम्बन्ध अतीत जीवन से है। 3 से 10 तक का सम्बन्ध वर्तमान जीवन से है। और 11 व 12 का सम्बन्ध भविष्यत् जीवन से है।
ये सभी कड़ियाँ (निदान) एक दूसरे से जुडकर चक्र की भांति घूमती रहती है। मृत्यु के बाद भी ये चक्र रुकता नहीं है और पुनः नये जन्म से शुरू हो जाता है। इसलिए इसे जन्ममरणचक्र भी कहते है।
3. तीसरा आर्य सत्य – दुःख-निरोध
महात्मा बुद्ध ने अपने तृतीय आर्य-सत्य में निर्वाण के स्वरुप की व्याख्या की है। महात्मा बुद्ध ने दुःख-निरोध को ही निर्वाण (मोक्ष) कहा है। दुःख-निरोध वह अवस्था है जिसमें दुःखों का अंत होता है। चूकिं दुःखों का मूल कारण अविद्या है, अतः अविद्या को दूर करके दुःखों का भी अंत किया जा सकता है।
निर्वाण का अर्थ जीवन का अन्त नही है, बल्कि निर्वाण (दुःख-निरोध) की प्राप्ति इस जीवन में भी सम्भव है। महात्मा बुद्ध के अनुसार प्रत्येक मानव को अपना निर्वाण स्वयं ही प्राप्त करना है। महात्मा बुद्ध की भांति मानव इस जीवन में भी अपने दुःखों का निरोध कर निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है। मानव का शरीर उसके पूर्वजन्म के कर्मों का फल होता है, जब तक ये कर्म समाप्त नहीं होते, शरीर भी समाप्त नहीं होता है इसलिए निर्वाण-प्राप्ति के बाद भी शरीर विद्यमान रहता है।
4. चौथा आर्य सत्य – दुःख-निरोध-मार्ग (दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद्)
अपने चतुर्थ आर्य-सत्य में तथागत ने दुःख-निरोध की अवस्था को प्राप्त करने हेतु एक विशेष मार्ग की चर्चा की है। दुःख-निरोध-मार्ग वह मार्ग है जिस पर चलकर कोई भी मानव निर्वाण को प्राप्त कर सकता है।
यह नैतिक व आध्यात्मिक साधना का मार्ग है, जिसे अष्टांगिक मार्ग या अष्टांग मार्ग कहा गया है। इसे मध्यम-मार्ग (मध्यम-प्रतिपद्) भी कहते है, जो अत्यन्त भोगविलास और अत्यन्त कठोर तपस्या के मध्य का मार्ग है।
मध्यम मार्ग
मध्यम-मार्ग दो अतियों – इन्द्रियविलास और अनावश्यक कठोर तप के बीच का रास्ता है। भगवान बुद्ध कहते है “हे भिक्षुओं। परिव्राजक (संन्यासी) को दो अन्तों का सेवन नही करना चाहिए। वे दोनों अन्त कौन है? पहला तो काम (विषय) में सुख के लिए लिप्त रहना। यह अन्त अत्यधिक दीन, अनर्थसंगत है। दूसरा शरीर को क्लेश देकर दुःख उठाना है। यह भी अनर्थसंगत है। हे भिक्षुओं! तथागत (मैं) को इन दोनों अन्तों का त्याग कर मध्यमा-प्रतिपदा (मध्यम-मार्ग) को जाना है।”
तथागत बुद्ध ने अपने तृतीय आर्य सत्य में निर्वाण के बारे में बताया है। लेकिन प्रश्न उठता है कि निर्वाण की प्राप्ति कैसे सम्भव है ? इसका उत्तर गौतम बुद्ध ने अपने चतुर्थ आर्य सत्य में दिया है। अपने चौथे आर्य सत्य में उन्होंने बताया कि निर्वाण प्राप्ति में मार्ग में आठ सीढ़ियाँ हैं जिसपर चढ़कर निर्वाण तक पहुँचा जा सकता है। अष्टांग मार्ग या अष्टांगिक मार्ग इस प्रकार है –
- पहला है सम्यक् दृष्टि
- दूसरा सम्यक् संकल्प
- तीसरा सम्यक् वाक्
- चौथा सम्यक् कर्मान्त
- पांचवां सम्यक् आजीव
- छठा सम्यक व्यायाम
- सातवां सम्यक स्मृति
- आठवां सम्यक समाधि