गुर्जर प्रतिहार राजवंश (Gurjara-Pratihara Dynasty)

गुर्जर प्रतिहार राजवंश (Gurjara-Pratihara Dynasty) – हर्ष की मृत्यु के बाद उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति में विभिन्न राजपूत राजवंशों का उदय हुआ। उनमें से एक गुर्जर-प्रतिहार वंश था। इस वंश की उत्पत्ति गुजरात और दक्षिण पश्चिम राजस्थान में हुयी थी। इस वंश का प्रथम शासक हरिश्चंद्र था। परन्तु  इस वंश की स्थापना वास्तविक रूप से नागभट्ट प्रथम ने की। इनकी प्रारंभिक राजधानी भीनमाल थी। इसके बाद प्रतिहारों ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया। ग्वालियर अभिलेख में गुर्जर प्रतिहारों को सौमित्र (लक्ष्मण) का वंशज बताया गया है। पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल अभिलेख में सर्वप्रथम इस वंश का नामोल्लेख हुआ है। इस वंश की तीन शाखाएँ थी। इनमें सबसे प्रमुख शाखा उज्जैन (अवंति) में थीं। चंदेल, चौहान, गहड़वाल इनके सामंत थे। अरब यात्रियों के अनुसार इस वंश के शासकों के पास सर्वश्रेष्ठ घुड़सवार सेना थी।

नागभट्ट प्रथम (730 से 756 ईo) –

ग्वालियर प्रशस्ति में इसे मलेच्छों (अरबों) का विनाशक कहा गया है। इसने अरबों से टक्कर ली और पश्चिम भारत में एक सुदृढ़ राजवंश की स्थापना की। इसने अरबों के शासक जुनैद को पराजित किया।

वत्सराज

इसके समय कन्नौज के लिए त्रिपक्षीय संघर्ष की शुरुवात हुयी। इसने पाल वंश के शासक धर्मपाल को हराया। परन्तु यह राष्ट्रकूट शासक ध्रुव से पराजित हुआ। इसके बाद यह राजपूताना में शरण लेने के लिए विवश हो गया। इसकी मृत्यु के बाद इसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय शासक बना।

नागभट्ट द्वितीय (800 से 833 ईo) –

सर्वप्रथम इसी ने कन्नौज पर अधिकार कर अपनी राजधानी बनाया। नागभट्ट ने चौहानों को अपना सामंत बनाया। इसने मुंगेर के युद्ध में धर्मपाल को हराया। परन्तु बाद में यह राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द तृतीय से हार गया। अंत में इसने गंगा में समाधि ले ली। इसके बाद रामभद्र तदुपरांत मिहिरभोज शासक बना।

मिहिरभोज प्रथम (838 से 885 ईo) –

इसकी उपाधि आदिवराह और प्रभास थी। वराह अभिलेख मिहिरभोज का पहला अभिलेख है। ग्वालियर अभिलेख से गुर्जर प्रतिहार वंश के शासकों की राजनीतिक उपलब्धियों एवं उनकी वंशावली का पता चलता है। इसी अभिलेख से मिहिरभोज की आदिवराह की उपाधि का पता चलता है। दौलतपुर अभिलेख में इसे प्रभास कहा गया है। इसके सिक्कों पर वराहशिरोधारी मनुष्य की आकृति से ज्ञात होता है कि यह खुद को विष्णु का अवतार मानता था। अरब यात्री सुलेमान ने इसे बौरा कहा साथ ही इसे अरबों (इस्लाम) का घोर शत्रु कहा। स्कंदपुराण के अनुसार इसने तीर्थयात्रा करने के लिए राज-पाट अपने पुत्र के पक्ष में त्याग दिया।

महेन्द्रपाल प्रथम (885 से 910 ईo) –

इसके समय प्रतिहार शक्ति अपने चरम सीमा पर पहुँच गयी। इनका साम्राज्य हिमालय से विंध्य और पूर्व में समुद्र से पश्चिम में समुद्र तक पहुँच गया। इसके राजकवि और राजगुरु राजशेखर थे। राजशेखर ने कर्पूरमंजरी, काव्य मीमांसा, बालरामयण, हरविलास जैसे प्रसिद्ध जैन ग्रंथों की रचना की। राजशेखर की रचनाओं में कन्नौज के वैभव का विवरण मिलता है। इसने राष्ट्रकूट नरेश इंद्र तृतीय को पराजित किया। परन्तु यह कश्मीर के शासक से हार गया।

महीपाल प्रथम (912 से 944 ईo) –

राजशेखर ने इसे आर्यावर्त का महाराजाधिराज कहा। कन्नड़ लेखक पम्पा ने इसे गुर्जरराज कहा। इसी के समय 915 ईo में अलमसूदी भारत (गुजरात) आया। इसने चार सेनाओं का गठन किया। इसका शासनकाल शांति व समृद्धि का काल था।

राज्यपाल

इसी के समय 1018 ईo में महमूद गजनबी ने कन्नौज पर आक्रमण किया। राज्यपाल कन्नौज छोड़कर भाग गया। इसकी इसी कायरता के कारण चंदेल शासक विद्याधर ने इसे पराजित कर समाप्त कर दिया। 1019 ईo  में राज्यपाल का पुत्र त्रिलोचन पाल को महमूद गजनबी ने पराजित किया।

यशपाल

यह अंतिम गुर्जर-प्रतिहार शासक था। बाद में गहड़वालों ने कन्नौज पर अधिकार कर इस वंश का अंत कर दिया।

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