राष्ट्रकूट राजवंश (Rashtrakuta Dynasty)

राष्ट्रकूट राजवंश (Rashtrakuta Dynasty) – राष्ट्रकूट दक्षिण भारत का प्रमुख राजवंश था, इसका संस्थापक दन्तिदुर्ग/दन्तिवर्मन को माना जाता है। दन्तिदुर्ग ने 752 ईo में चालुक्य शासक कीर्तिवर्मन को पराजित कर स्वतंत्र राज्य की नींव रखी। इनकी प्रारंभिक राजधानी मयूरखिंदी थी। बाद में अमोघवर्ष के समय इन्होने मान्यखेत को अपनी राजधानी बनाया। प्रारंभ में राष्ट्रकूट बादामी के चालुक्य वंश के सामंत थे। अरब लेखक अबूज़ैद के अनुसार राष्ट्रकूट महिलाऐं चेहरे पर पर्दा नहीं करती थीं। कृष्ण तृतीय के लेखों से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूट तुंग के वंशज थे तथा इसका आदि पुरुष रट्ट था। संजन अभिलेख में अमोघवर्ष प्रथम ने राष्ट्रकूटों को यदुवंशी बताया है। इन्होंने अपनी पैतृक परंपरा को यादव सात्यिकी से जोड़ा है। अरब यात्रियों ने राष्ट्रकूट शासकों को बल्हर कहा है। इतिहासकार सी. वी. वैद्य राष्ट्रकूटों को मराठों का पूर्वज मानते हैं। अलमसूदी के अनुसार राष्ट्रकूटों की पैदल सेना सर्वाधिक शक्तिशाली थी। जैन धर्म को राष्ट्रकूटों का राज्याश्रय प्राप्त था। परमार इनके सामंत थे।

राष्ट्रकूटों ने अरब व्यापारियों को अपने राज्य में बसने, व्यापार करने, इस्लाम का प्रचार व प्रसार करने के साथ उन्हें मस्जिदें बनाने की भी अनुमति दी थी।

दन्तिदुर्ग –

संजन अभिलेख के अनुसार दन्तिदुर्ग ने उज्जैन पर अधिकार कर वहां हिरण्यगर्भदान यज्ञ कराया। इस यज्ञ में प्रतिहारों ने द्वारपालों की भूमिका निभाई। इसने सिंध के अरबों को भी हराया। इसी ने एलोरा में दशावतार मंदिर का निर्माण कराया। इसके बाद इसका चाचा कृष्ण प्रथम शासक बना।

कृष्ण प्रथम –

इसने शुभतुंग की उपाधि धारण की। इसने बादामी के चालुक्यों के अस्तित्व को पूर्णतः नष्ट कर दिया। इसने वेंगी के चालुक्यों और मैसूर के गंगों को भी अपनी प्रभुसत्ता स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया। विजेता के साथ साथ यह एक महान निर्माता भी था। इसने एलोरा के प्रसिद्ध कैलाश मंदिर (गुहा मंदिर) का निर्माण कराया।

इसके बाद गोविन्द द्वितीय शासक बना। उसके बाद गोविन्द द्वितीय का पुत्र घ्रुव शासक बना।

ध्रुव –

इसी के समय कन्नौज के लिए त्रिपक्षीय संघर्ष की शुरुवात हुयी। इसने धारावर्ष की उपाधि धारण की। सर्वप्रथम इसी ने उत्तर भारत का अभियान किया। इसके तहत इसने प्रतिहार शासक वत्सराज और पाल नरेश धर्मपाल को पराजित किया। पल्लव नरेश दन्तिवर्मन और वेंगी नरेश विष्णु वर्द्धन चतुर्थ ने इसकी शक्ति से भयभीत होकर इससे समझौता कर लिया। मालवा और गुजरात के प्रभुत्व के लिए राष्ट्रकूटों का प्रतिहारों से युद्ध हुआ। अंत में ध्रुव ने अपने तीसरे व योग्य पुत्र गोविन्द तृतीय के पक्ष में सिंघासन त्याग दिया।

गोविन्द तृतीय –

इसने उत्तर में हिमालय और दक्षिण में केरल, पांड्य, श्रीलंका तक अभियान किये। इसने श्रीलंका के राजा व मंत्री को लाकर हालापुर में बंदी बनाकर रखा। राधनपुर लेख में इसकी तुलना यदुवंशी कृष्ण से की गयी है। इसने पाल शासक धर्मपाल और प्रतिहार शासक नागभट द्वितीय को भी पराजित किया। प्रतिहार शासक से मालवा जीतकर वहां परमार वंश के उपेंद्र को स्थापित किया। इसने पाण्ड्य, पल्लव, केरल व गंग राजाओं के संघ को ध्वस्त किया। इसके काल में राष्ट्रकूट शक्ति अपने चरम सीमा पर पहुँच गयी।

अमोघवर्ष –

इसका जन्म स्कंधावर के सैन्य शिविर में हुआ था। यह मात्र सात वर्ष की आयु में कर्क के संरक्षण में शासक बना। कुछ समय बाद इसे सिंघासन से हटा दिया गया परन्तु अपने सभी शत्रुओं को हटाकर यह पुनः शासक बना। इसी ने राष्ट्रकूटों की राजधानी मयूरखिंदी से मान्यखेत स्थापित की। इसने चालुक्य शासक को हराकर वीरनारायण की उपाधि धारण की। इसके शासनकाल में बहुत से विद्रोह हुए। संजन अभिलेख के अनुसार राज्य को महामारी से बचाने  इसने लक्ष्मी को अपनी एक उंगली काटकर चढ़ा दी थी। इसकी तुलना शिव, दधीचि से की जाती है। इसने अपनी पुत्री चन्द्रबल्लबे को रायचूर दोआब की प्रशासिका नियुक्त किया। 851 ईo में सुलेमान इसके साम्राज्य में आया। उसने इसके साम्राज्य को विश्व के चार महान साम्राज्यों में गिना। अन्य तीन साम्राज्य – रोमन, चीन, बगदाद थे। इसने वनवासी में जैन विहार बनवाया और गुणभद्र को अपने पुत्र का शिक्षक नियुक्त किया। अमोघवर्ष ने ही रत्नमालिका और कविराजमार्ग की रचना की। जिनसेन, शाकटायन और महावीराचार्य इसी के दरबार में रहते थे। अमोघवर्ष का गुरु जिनसेन था, इसी के प्रभाव में आकर अमोघवर्ष जैन अनुयायी बना। अंत में सांसारिक माया-मोह त्यागकर इसने सिंघासन भी त्याग दिया।

इसके बाद कृष्ण द्वितीय शासक बना।

इंद्र तृतीय –

यह पहला राष्ट्रकूट शासक था जिसने कन्नौज पर अधिकार कर लिया।

कृष्ण तृतीय –

इसने अपने राज्यारोहण के समय अकालवर्ष की उपाधि धारण की। इसने 949 ईo में तक्कोलम के युद्ध में चोलों को पराजित किया। इसने चोलमण्डलम को जीतते हुए रामेश्वरम तक हमला किया। इसने कांची और तंजौर को भी जीता। इसने चोल नरेश परांतक प्रथम को भी पराजित किया। इसने रामेश्वरम में एक विजयस्तंभ और मंदिर बनवाया। इसके दरबार में कन्नड़ भाषा का कवि पोन्न निवास करता था जिसने शांति पुराण की रचना की थी।

इसकी मृत्यु के बाद इसके निर्बल उत्तराधिकारियों के बीच गृहयुद्ध शुरू हो गया। इसी का फायदा उठाकर परमारों ने मालवा को स्वतंत्र राज्य घोषित  लिया। 972-73 ईo में परमार शासक सीयक ने राष्ट्रकूट राज्य पर हमला कर दिया और राजधानी मान्यखेत को खूब लूटा

इसके बाद अमोघवर्ष चतुर्थ शासक बना।

कर्क द्वितीय –

यह अंतिम राष्ट्रकूट शासक था। 974-75 ईo में चालुक्य नरेश तैलप द्वितीय ने इसे परास्त कर राष्ट्रकूट साम्राज्य पर अधिकार कर कल्याणी के चालुक्य वंशीय राज्य की स्थापना की।

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