भारत-चीन सम्बन्ध तब और अब

भारत-चीन सम्बन्ध तब और अब

एक नज़र में

  • नेहरू ने चाओ चाउ के साथ दोस्ती की पींगें बढ़ाईं तो नरेंद्र मोदी ने शी जिनपिंग को अहमदाबाद में झूला झुलाया।
  • नेहरु और मोदी की अमेरिका से बढ़ती नजदीकी हमेशा चीन को नागवार गुजरती है और अमेरिका मौके पर तटस्थ हो गया।
  • आजादी से पहले ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के बीच थे बेहद मजबूत संबंध।
  • कांग्रेस ने डॉ. द्वारकानाथ कोटनीस के नेतृत्व में डॉक्टरों का एक दल चीन सहायता के लिए भेजा।
  • राजीव गाँधी और तंग श्याओ फंग के बीच सहमति के बाद संबंधों में तेजी से सुधार आना शुरु हुआ।

भारत-चीन सम्बन्ध तब और अब

चीन के साथ रिश्तों को लेकर नेहरू हों या मोदी। दोनों सरकारों की एक ही कहानी है, और अंजाम भी करीब-करीब वही चीनी धोखा। कहते हैं कि इतिहास अपने को दोहराता है। लेकिन कुछ बदलावों के साथ। चीन के साथ भारत के रिश्तों में यही हो रहा है। नेहरु ने माओ चाउ के साथ दोस्ती की पींगें बढ़ाईं, तो नरेंद्र मोदी ने जी शिनपिंग को अहमदाबाद में झूला झुलाया और वुहान से लेकर महाबलीपुरम तक दौरे साथ-साथ किये।

दोनों ही प्रधानमंत्रियों नेहरु व मोदी की अमेरिका से बढ़ती नजदीकी चीन को नागवार गुजरी और अमेरिका मौके पर तटस्थ हो गया। अगर नेहरु तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. कनेडी की दोस्ती पर भरोसा था। तो मोदी को अमेरिकी दोस्त डोनाल्ड ट्रंप पर भरोसा है। लेकिन न तब अमेरिका भारत के बचाव में आया न अब।

रूस जो नेहरू के समय सोवियत संघ था, यह कह कर तटस्थ हो गया कि भारत अमेरिका का दोस्त है और चीन इसका पड़ोसी और बिरादराना (कम्युनिस्ट) भाई। इस बार भी रूस खामोश है और उसने अमेरिका जैसी प्रतिक्रिया नहीं की है, कि हम नजर रखे हुए हैं। तब भी भारत ने मुकाबला अपने दम पर किया था। भले ही पराजित होना पड़ा था और अब भी उसे चीन से जो कुछ पाना है अपने दम पर ही पाना होगा।

अब थोड़ा और गहराई से चलते हैं। 1947 में आजादी से पहले ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस पार्टी और चीनी क्रांति के लिए लड़ रही चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के बीच अंतर्दलीय संबंध काफी मजबूत हो गए थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समय ही नेहरू और कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता चाउ एन लाई के बीच दोस्ताना रिश्ते हो गए थे। माओ की अगुवाई में जब चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में उसकी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) जब जापानी सेना से मुक्ति संग्राम लड़ रही थी। तब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने डॉ. द्वारिका नाथ कोटनीस के नेतृत्व में डॉक्टरों का एक दल चीनियों की चिकित्सकीय सहायता के लिए भेजा था और उस लड़ाई में घायल चीनी सैनिकों का इलाज करते करते डॉ. द्वारिकानाथ कोटनीस की मृत्यु चीन में ही हो गई।

भारत-चीन

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और चीनी कम्युनिस्ट के इस दोस्ताना रिश्तों की पृष्ठभूमि में ही आजाद लोकतांत्रिक भारत और मुक्त साम्यवादी चीन के बीच पंचशील और हिंदी चीनी भाई भाई का सुनहरा दौर शुरु हुआ। चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। भारत ने दलाई लामा को राजनीतिक शरण दे दी। लेकिन दोनों देशों के रिश्ते आगे बढ़ते रहे। आजाद भारत के स्वप्न दर्शी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु दूसरे विश्व युद्ध के बाद दो ध्रुवों में बंट चुकी दुनिया के बीच में एक नया औऱ तीसरा ध्रुव बनाने में जुटे थे। जिसके सदस्य देश सोवियत संघ और अमेरिका के नेतृत्व वाले दोनों गुटों में से एक किसी देश के साथ संबंध न हो और दोनों के साथ समान दूरी और व्यवहार करते हुए अपने विकार का रास्ता खुद तय करें। नेहरू निर्गुट राष्ट्रों के सम्मेलन के जरिए विश्व राजनीति में अपनी अलग छबि बना रहे थे और चीन भारत की दोस्ती परवान चढ़ रही थी। दोस्ती के इसी दौर में दोनों देशों के बीच सीमा रेखा को लेकर विवाद भी शुरु हुआ। भारत का जोर अंग्रेजों की खींची गई मैकमोहन रेखा को भारत-चीन के बीच अंतर्राष्ट्रीय सीमा माने जाने पर था। जबकि चीन का तर्क था वह ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा खींची गई मैकमोहन रेखा को नहीं मानता। उसका दावा लद्दाख क्षेत्र में हजारों किलोमीटर के उस इलाके पर था। जो भारत के पास था।

दरअसल तिब्बत पर चीन के कब्जे से पहले भारत और चीन के बीच एक बफर देश था। लेकिन तिब्बत पर कब्जा करके चीन ने अपनी सीमाएं भारत तक बढ़ा ली थीं। चीन तिब्बत को प्राचीन काल से ही अपना हिस्सा मानता था। इसलिए उसने पुरानी भारत-तिब्बत सीमा के लंबे चौंड़े इलाके पर अपना दावा किया। जिसे चीन से तमाम दोस्ती के बावजूद भारत ने नामंजूर कर दिया। चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाई की भारत यात्राओं से भी कोई हल नहीं निकला। चाउ एन लाई ने नेहरू को जो प्रस्ताव दिए, उन्हें नेहरू ने नहीं माना। उधर सोवियत संघ में जोसेफ स्टालिन की मृत्यु के बाद सत्ता निकितन खुश्चेव के हाथों में आयी और उसके साथ चीन के सर्वोच्च नेता मासोत्से तुंग के गंभीर वैचारिक मतभेद हो गए। जो जल्दी ही चीन व सोवियत संघ के बीच तनाव में बदल गए। इसी दौर में अमेरिका में सत्ता बदली और डेमोक्रेटिक जॉन एफ. कैनेडी राष्ट्रपित चुने गए और उनकी भारत नीति ने अमेरिका और भारत को करीब ला दिया। नेहरू को अमेरिका की सरपरस्ती और चीन की दोस्ती पर पूरा भरोसा था। लेकिन दिसंबर 1962 में नेहरू के ये दोनों भरोसे टूट गए। जब चीन ने भारत पर हमला कर दिया और अमेरिका सात समंदर पार से तमाशा देखता रहा। आगे की कहानी जग गाहिर है कि भारत की युद्ध में शर्मनाक हार हुई और चीन ने भारत के 38 हजार वर्ग किलोमीटर से भी ज्यादा इलाके को कब्जे में ले लिया।

इसके बाद भारत और चीन के रिश्तों में दुश्मनी का दौर शुरु हुआ। नेहरू के बाद भारत की लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गाँधी की सरकारों ने चीन पर भरोसा नहीं किया और दोनों देशों के बीच तनाव और कड़वाहट बढ़ती गई। 1976 में माओ की मृत्यु के बाद चीन में जबरदस्त सत्ता संघर्ष के बाद 1980 में तंग श्याओ फंग और उनके समर्थक गुट ने चीन की सत्ता पर अधिकार कर लिया। माओ के कट्टर साम्यवादी विचारों के उलट तंग व्यवहारवादी नेता थे। तंग श्याओ फंग के शुरु किए गए चीन के चार आधुनिकीकरण कार्यक्रमों को पूरा करने के लिए चीन को क्षेत्रीय शांति और एशिया के विस्तृत बाजार की जरूरत थी। जो बिना भारत के साथ रिश्ते सुधारे मुमकिन नहीं था।

इधर भारत में भी इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद राजीव गाँधी भारी बहुमत से प्रधानमंत्री बने थे और वह लीक से हटकर कुछ करने के इरादे से काम कर रहे थे। इसी पृष्ठभूमि में भारत और चीन के दोस्ताना रिश्तों की इबारत लिखी गई। राजीव गाँधी की ऐतिहासिक चीन यात्रा से दोनों देशों के बीच दशकों से जमी बर्फ पिघली और दुनिया ने वह तस्वीर बड़े चाव से देखी। जब युवा राजीव गाँधी का हाथ अपने हाथ में लेकर बुजुर्ग तंग श्याओ फंग कई मिनट तक मिलाते रहे।

राजीव गाँधी व तंग श्याओ फंग के बीच बनी सहमति के साथ ही दोनों देशों ने आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और कूटनीतिज्ञ संबंधों में तेजी से सुधार लाना शुरु कर दिया। राजीव गाँधी के बाद नरसिम्हाराव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारों ने दोस्ताना रिश्तों की इस प्रक्रिया को और तेज कर दिया। भारतीय प्रधानमंत्रियों की चीन यात्राओं और चीनी नेताओं की भारत यात्राओं से कई समझौते हुए। जिनसे भारत में चीनी निवेश और व्यापार का रास्ता खुला। दोनों देशों के बीच तय हो चुका था कि सीमा विवाद को लेकर बातचीत का दौर चलता रहेगा। लेकिन उससे भारत-चीन के आर्थिक सामाजिक और कूटनीतिक रिश्तों पर असर नहीं पड़ेगा और इन क्षेत्रों में दोनों देश आगे बढ़ते रहेंगे।

चीन की तरक्की से भारत और भारतीय अभिभूत होने लगे और धीरे-धीरे भारत के बाजार, उद्योग, व्यापार, वाणिज्य, तकनीक हर क्षेत्र में चीन और चीनी सामान छा गया। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी कुछ मुद्दों पर मदभेद के बावजूद दोनों देशों का सहयोग बढ़ने लगा। चीन की तरक्की से वामपंथी और कांग्रेसी ही नहीं दक्षिणपंथी भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेता भी बेहद प्रभावित होने लगे। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने चीन की कई बार यात्रा की और भारत को भी चीन की तरक्की और उसके मॉडल से सीखने की बात बार-बार की।

प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में जहाँ सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को बुलाया तो उसके फौरन बाद सबसे पहले चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का भारत में दिल खोलकर स्वागत किया। अहमदाबाद से साबरमती रिवर फ्रंट में झूले पर बैठे मोदी और जिनपिंग की तस्वीरें उसी तरह से देखी गईं। जैसे कभी राजीव गाँधी और तंग श्याओ फंग की हाथ मिलाने की तस्वीर देखी गई थी। नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल में भारत-चीन की दोस्ती इस कदर परवान चढ़ी कि दोनों देशों के बीच 2020 तक करीब 87 अरब डॉलर का व्यापार हो गया।

मोदी-जिनपिंग

डोकलाम में दोनों देश एक बार आमने सामने हुए लेकिन मोदी और जिनपिंग ने कूटनीतिक स्तर पर उसे सुलझा लिया और टकराव टल गया। उसके बाद वुहान और महाबलीपुरम में दोनों नेताओं की अनौपचारिक बिना एजेंडे की मुलाकातों ने भारत चीन की दोस्ती की मजबूती का आभास दुनिया को दिया। शायद ये आभास ही था क्योंकि अब दोबारा ज्यादा बड़े बहुमत से सरकार बनीं तो 6 महीने के भीतर ही कई बड़े फैसले लिए जिनमें जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 में बदलाव और राज्य के पुनर्गठन का फैसला भी था। जिसके तहत लद्दाख और जम्मू-कश्मीर अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिए गए।

संसद में जब यह विधेयक पारित हो रहा था। तो गृह मंत्री अमित शाह ने पाक अधिकृत कश्मीर और चीन के कब्जे वाले अक्साई चिन पर भारत के दावे को दोहराया। जिसका पूरे सदन ने समर्थन किया। चीन को भारत का यह फैसला अखर गया और तब से ही उसके तेवर बदल गए। चीन ने पाकिस्तान के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् और अन्य वैश्विक मंचों पर भारत के इस कदम का विरोध किया। जबकि भारत ने कहा कि उसका फैसला उसका आंतरिक मामला है और पूरी दुनिया ने भारत की इस बात का समर्थन किया। बौखलाए चीन ने भारत को घेरना शुरु कर दिया। एक तरफ उसने लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक सीमाओं पर भारी सैनिक जमावड़ा किया। तो दूसरी तरफ नेपाल को भारत के खिलाफ उकसाकर लिपुलेख और कालापानी का विवाद शुरु कर दिया।

जनवरी से ही लद्दाख क्षेत्र में चीनी सेना ने भारतीय सीमा पर अपनी गतिविधियां बढ़ाना शुरु कर दीं और मई तक उसने विवादित क्षेत्र में न सिर्फ कई पक्के निर्माण किये। बल्कि गलवान नदी घाटी में उन बिंदुओं पर बैठ गई, जहाँ भारतीय सेना के गश्ती दल गश्त किया करते थे और जिनपर कोई निर्माण नहीं था। इसके बाद 15, 16 जून 2020 को हिंसक मुठभेड़ हुईं। इसमें भारतीय सेना के 20 जवान शहीद हुए और 10 को चीनी सेना ने पकड़ लिया। जिन्हें बाद में छोड़ा गया। हाल ही में 29, 30 अगस्त को चीन भारतीय सीमा में घुसपैठ करना चाहता था। जिसे भारतीय सेना ने नाकाम कर दिया। चीन ने अरुणाचल प्रदेश से 5 नागरिकों को पकड़ लिया है। जिन्हें 3 सितंबर को रिहा कर दिया। भारतीय सेना ने भी लद्दाख के रेजांगला व चुशूल क्षेत्र में चौकसी बढ़ा दी है। जिससे चीन से हर परिस्थिति में निपटा जा सके।

Lalit Kumar

लेखक
श्री ललित कुमार
(इतिहास में परास्नातक)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति सुगम ज्ञान उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार सुगम ज्ञान के नहीं हैं, तथा सुगम ज्ञान उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है। 

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