अयोध्या विवाद : राम मंदिर vs बाबरी मस्जिद

इतिहास –

सभी हिंदू ग्रंथों के अनुसार अयोध्या को राम की नगरी कहा गया है। यहीं पर राम का मंदिर था जिसे मुगलों द्वारा तोड़कर उस स्थान पर मस्जिद का निर्माण किया गया था। साल 1853 में पहली बार ब्रिटिश शासन में हिंदू व मुस्लिमों में इस भूमि को लेकर विवाद की शुरुवात हुई। इसके  बाद साल 1859 में अंग्रेज सरकार ने मुस्लिमों को स्थल के अंदर का औऱ हिंदुओं को बाहर का हिस्सा अपने धार्मिक कार्यों के लिए प्रयोग करने को कह दिया। साल 1934 में बकरीद के दिन भी अयोध्या में दंगे हुए थे।

इसके बाद देश आजाद हुआ और साल 1949 में इसके अंदर के भाग में भगवान राम की प्रतिमा को स्थापित किया गया। परंतु फिर विवाद खड़ा हो गया और इस स्थान पर ताले लगा दिए गए। साल 1986 में स्थानीय न्यायालय ने स्थल को हिंदुओं को पूजा अर्चना के लिए खोलने का आदेश दिया। इसके विरोध में मुस्लिमों द्वारा मस्जित एक्शन कमेटी का गठन किया गया। इसके बाद 1989 में विहिप ने विवादित स्थल के पास ही एक जमीन से राम मंदिर की मुहिम की शुरुवात की।

बाबरी मस्जिद –

इस मस्जिद का निर्माण मुगल वंश के संस्थापक बाबर के सेनानायक मीर बाकी द्वारा कराया गया औऱ इसका नाम बाबरी मस्जिद रखा गया।

विवादित ढांचा गिराने की घटना ( 06 दिसंबर 1992 की घटना ) –

राष्ट्रीय स्वयं सेवक औऱ भाजपा के नेतृत्व में राम मंदिर के लिए लंबे समय से संघर्ष जारी था। इसकी क्रम में 06 दिसंबर 1992 को अयोध्या में कारसेवकों द्वारा बाबरी मस्जिद रूपी विवादित ढांचे को गिरा कर वहां पर प्रतीक स्वरूप अस्थाई राम मंदिर का निर्माण कर दिया गया था। इसके परिणामस्वरूप देश भर में दंगे शुरु हो गए और इसमें करीब दो हजार लोगों की जान चली गई।

लिब्रहान आयोग –

घटना के 10 दिन बाद 16 दिसंबर 1992 को आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश एम. एस. लिब्रहान की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया। इसे आयोग को गठन के तीन माह बाद अर्थात 16 मार्च 1993 को मामले पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने को कहा गया। लेकिन ऐसा नहीं हो सका और जांच आयोग के कार्यकाल को 48 बार बढ़ाना पड़ा। इसके बाद आयोग ऩे रिपोर्ट देने में 17 साल लगा दिए औऱ 30 जून 2009 को अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी. चिदंबरम को सौंपी।

इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला – 2010

साल 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने मामले पर अपना फैसला दिया। इसके अनुसार विवादित भूमि को राम जन्मभूमि घोषित किया गया। भूमि को राम मंदिर न्यास, ऩिर्मोही अखाड़े और मस्जिद तीनों के बीच बांटने का निर्णय दिया गया। परंतु हिंदू व मुस्लिम पक्ष इस फैसले से संतुष्ट नही हुए और इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी।

उच्चतम न्यायालय में

उच्चतम न्यायालय में मामला पहुंचने के सात साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसला किया कि तील न्यायाधीशों की एक पीठ 11 अगस्त 2017 से प्रतिदिन इस मामले की सुनवाई करेगी। इसके बाद कोर्ट ने कहा कि 05 दिसंबर 2017 से इस मामले की अंतिम सुनवाई की शुरुवात की जाएगी। इसके बाद यह तिथि 05 फरवरी 2018 कर दी गई।

शिया व सुन्नी में मतभेद –

सुनवाई से ठीक पहले शिया बफ्फ बोर्ड ने न्यायालय में याचिका दायर कर विवाद में पक्षकार होने का दावा किया। शिया बफ्फ बोर्ड ने 30 मार्च 1947 के ट्रायल कोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी जिसमें मस्जिद को सुन्नी बफ्फ बोर्ड की संपत्ति घोषित कर दिया गया था।

विवाद पर अंतिम सुनवाई –

उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की एक संवैधानिक पीठ ने लगातार 40 दिन तक सुनवाई कर 16 अक्टूबर 2019 को अपने निर्णय को सुरक्षित रख लिया था। इस निर्णय को 23 दिन बाद 09 नवंबर 2019 को सुनाने की बात भी तभी कह दी थी। भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में यह दूसरी सबसे लंबी सुनवाई थी। अब तक की सबसे लंबी सुनवाई केशवानंद भारती विवाद में चली थी। तब यह सुनवाई 68 दिनों तक चली थी।

उच्चतम न्यायालय का अंतिम निर्णय –

09 नवंबर 2019 को अयोध्या विवाद पर अपना निर्णय सुना दिया। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने सुबह 10:30 बजे निर्णय को पढ़ना शुरु किया। विवादित भूमि पर अब से राम मंदिर का अधिकार होगा और मुस्लिम पक्ष को अयोध्या में ही कहीं दूसरी जगह पांच एकड़ जमीन बाबरी मस्जिद बनाने के लिए दी जाएगी। कोर्ट ने कहा कि मुस्लिम पक्ष विवादित जमीन पर अपना दावा साबित करने में नाकाम रहा। कोर्ट ने कहा कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाए जाने के भी ठोस सबूत प्राप्त नहीं हुए हैं। इसके साथ ही कोर्ट ने निर्मोही अखाड़े का भी दावा खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि फैसला आस्था के आधार पर नहीं दिया जा सकता। इसे कानूनी आधार पर ही दिया जाएगा। न्यायालय ने केंद्र सरकार को तीन माह के भीतर मंदिर बनाने हेतु ट्रस्ट गठित करने को कहा है। यही ट्रस्ट राम मंदिर का निर्माण करेगा।

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